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जब जब जो जो होना है

(written on 4th July 2023 at 2230hrs)

जब जब जो जो होना है

तब तब वो वो होता है।

बेकार ही तू परेशान है

मुफ़्त ही तू रोता है।।

मेहनत करने वाला

मेहनत करके खाता है।

और आलसी अँगड़ाई

लेकर बेफिक्र सोता है।।

रातों की नींद खोई अगर तो

दिन में चैन कहाँ कोई पाता है?

फ़िक्र के बीज जो बोता है

ख़ुद को गहरी सोच में डुबोता है।।

कर्मठ अपनी कर्म से

अपनी तक़दीर तक बदल देता है।

बिना कर्म के फल तो

भगवान अर्जुन को भी नहीं देता है।।

तेरे वाणी में संदेश हो तो ठीक है

उपदेश क्यों देता है

किसी भी तरह अपनी बात मनवाने का

किसी का उद्देश भला क्या होता है

तुझे जो लगे ग़लत

किसी और को वह सही होता है।

ऐसा भी हो सकता है

यह मानने में आख़िर तेरा क्या जाता है?

उसे जो करना है, वो वही करता है

तू व्यर्थ ही समझाने कि कोशिश करता है

तेरी राय तू अपने पास ही रख

मुफ़्त में बाटने के लिये तो ज्ञान, उसके पास भी होता है

और जब जब जो जो होना है

तब तब वो वो ही होता है।

बेकार ही तू परेशान है

मुफ़्त ही तू रोता है।।

वाह रे मनुष्य गण

(written on 7th March 2022 at 1130hrs)

पल पल विचलित मन
छल छल चंचल मन ।
तक धिना धिन नाचे मन
वानर कपि सा कूदे मन।।

उतना तेज़ न भागे तन
बिना मेहनत ही चाहे धन ।
हर लेन-देन में गबन
बस चले तो बेच दे पवन ।।

छन छन जो बरसे धन
निर्मोही, फ़िर न चाहे जन ।
बैरी हो जाए पर्वत और वन
पेड़ काटे धन धना धन।।

बुढ़ापा डराये और बीत गया बचपन
भागते भागते खो दिया यौवन।
बेमतलब दौड़ को नाम दिया ‘जीवन’
वाह रे मनुष्य गण।।

न कर चिंता, तू कर चिंतन
ध्यान धर और कर मनन ।
सोच में लाकर परिवर्तन
जतन से मुम्किन है शांति का पुनरागमन।।

एक अनोखी प्रेम कहानी जी|

Written on 11th April 2021 at 1300hrs (For Friday Word #Parle G)

तू बिखरी बिखरी सी थी
और मैं कइयों के साथ तैनात
आखिर हमें मिलना तो है
रोक नहीं सकती ये कायनात
हमारे मिलन से पहले
शायद तुम्हें उबालेंगे और छानेंगे
और मुझे मेरे अपनों से
दूर करके शायद थाली में सजायेंगे
कप में थरथराते हुए
जब हुआ तुम्हारा दीदार
मन किया हो जाऊं फना तेरे आग़ोश में
तोड़ेक सारे बंधन और दीवार
अद्रक और इलाइची का इत्र ओढ़े
जब फ़ैली तुम्हारी ख़ुश्बू
इशारा था के कुछ ही देर में
बस होना था हमें रूबरू
जैसे हीर-रांझा और लैला मजनू
के होते हैं किस्से सुनाने के लिए
वैसे ही तुम चाय और मैं पार्ले-G
बने हैं एक दूजे के लिए

Mrig-Trishna

Written on 15th March 2021 at 1145hrs

सत्य तो केवल मृग-तृष्णा है
खेल तो सारा नज़रिये का है

समझे जिसे मेरे कामयाबी कि महफ़िल
व्यापारियों का वोह तो बस एक मेला है

देने के लिए जब तक हाथों में क्षमता है
मानो हाथ थामनेवालों का रेला है

उदास मन को सहारे के लिए कंधे की जब ज़रुरत पड़े
दुनिया में एक तू ही नहीं, और भी तो झमेला है

सत्य तो केवल मृग-तृष्णा है
खेल तो सारा नज़रिये का है

हमने दिल से जिसे माशूक़ समझा
उनके लिए हम तो बस एक तजुर्बा हैं

बेपनाह और शिद्दत वाला प्यार
कहानियों में मिलनेवाला बस एक अजूबा है

ज़िन्दगी भर का ख़्वाब देखा जिसके लिए
उनके लिए हम तो बस एक नमूना हैं

सत्य तो केवल मृग-तृष्णा है
खेल तो सारा नज़रिये का है

दिन रात एक कर जिस कंपनी के लिए सींचा है
उनके लिए हम तो एक बदलनेवाला पुर्ज़ा हैं

जिसके लिए सारे छुट्टियां कुर्बान किये
उनके लिए हम तो एक अक्षय ऊर्जा हैं

जिन बच्चों के लिए हमारे पास समय न था
उनके युवाकाल में हमारा भला क्या दर्जा है

सत्य तो केवल मृग-तृष्णा है
खेल तो सारा नज़रिये का है

Friday Word ‘MARCH’

Written on 14th March 2021 at 2100hrs

सत्य तो केवल मृग-तृष्णा है
खेल तो सारा नज़रिए का है
वक्त के साथ ज़माना बदलता है
और ज़माने के साथ लोग
विशेषता थी यहाँ कि संस्कृति और योग
पिछले मार्च से मगर आ बसा है एक नया रोग
उस मार्च से इस मार्च के बीच कितना कुछ है बदला
शिक्षण और काम करने का तरीक़ा भी बदला
घोषित हुआ टिका के द्वारा रोग पर हमला
या साबित होगा यह भी एक राजनीतिक झुम्ला?
किसी का धंधा मंद है तो किसी कि दुकान है बंद
दूसरे लॉक्डाउन के कोई है ख़िलाफ़ तो कोई है रज़ामंद
महीना है मार्च का, कर विभाग ने फ़िर भी किया याद
जान है तो जहां है, पर होना नहीं है बर्बाद
पॉज़िटिव के संख्या ने दोबारा भरी उड़ान
मगर किसकी कितनी सच है ज़ुबान
ऐसा कहते तो हैं TV और अख़बार के पत्रकार
सुलझ जाये यह गुत्थी इस मार्च, तो हो जाये चमत्कार
सत्य तो केवल मृग-तृष्णा है
खेल तो सारा नज़रिए का है

नारी सशक्तिकरण।

Written on 8th March 2021 at 0830hrs

तुम्हीं से है वजूद हमारा
तुम्हीं से है अस्तित्व हमारा
तुम्हीं से है पहचान
और जीवन सम्पूर्ण हमारा

जिसे दिया देवी का दर्जा
ऋणी है जिस्का हमारा हर पुर्ज़ा
ऐसी हो तुम ऐ नारी
जो पड़े हैं सब पे भारी

फिर तुम पे ये संकट क्यों है आता
क्यों कोई तुम्हें नीचा दिखा जाता
क्यों हर दिन है तुम्हारे लिए एक जंग सी
ख़्वाहिशों का गला घोटे बड़ी बेरंग सी

रख अपने पे भरोसा और उठा हर कदम
कर खुद पे यक़ीन और खा लो ये क़सम
करेंगे खुद का सम्मान और
तोड़ेंगे हम सब का भरम

तुम प्रतीक हो शक्ति का
सहनशीलता और काली के प्रकोप का
यशोदा मैया कि ममता का
और सावित्री के दृढ़ संकल्प का

सामाजिक और मानसिक
बेड़ियों को तोड़ के
खुद को अपना प्रतिद्वंदी बना के
उतर जा मैदान में

बहुत बन ली तुम हालात के शिकार
अब उठा अपने शस्त्र और औज़ार
बदल दे नारी सम्मान की परिभाषा
और हो जा ख़ुद के विधि के विधाता

किसी ख़ास दिन या
किसी और के हौसले की तुम्हें क्या है ज़रूरत
बन जा एक अहम् हिस्सा
स्वयं अपने सशक्तिकरण का

अनोखा व्यंग्य

Written on 3rd March 2021 at 1630hrs

अक्षरमाला तो इंसान ने ही पिरोया है
अर्थ को समझने का व्यर्थ ही प्रयास लगाया है
कुछ है तो बस है; और यदि कुछ हो रहा है तो बस हो रहा है
क्यों, कब, किसने और कैसे में व्यर्थ ही उलझा है

तेरे पहले भी यह संसार था
हवाएं चलती थी और नदियाँ सागर से मिलती थी
सदियों पुरानी कलाकृति और अविष्कारों को
पुरातत्वविदों ने अक्सर मिट्टी से ही कुरेदा है

तू नयी पहचान बनाने में व्यर्थ ही जुटा है
जीवन का उद्देश्य और मतलब न खोज ए मुर्ख
दुनिया, वातावरण और धार्मिक रक्षण का ढोंग
तो तूने व्यर्थ ही रचाया है

शब्दों, ग्रंथों और पुराणों में उलझा झुलसता रहता है
और नयी पीड़ी को नया सीख देने में लगा हुआ है
व्यंग्य की बात तो यह है की यह सीख भी तूने
मेरे द्वारा लिखे गए शब्दों में ही पाया है।।

लिखना सभी को है, पढ़नेवाला कोई नहीं।

Written on 1st March 2021 at 1600hrs

कहना सबको है
सुननेवाला कोई नहीं ।
सिखाना सब को है
सीखनेवाला कोई नहीं।।

समझाना सब को है
समझना किसी को नहीं ।
संभालना सब को है
संभलना किसी को नहीं ।।

काम बहुत है और करानेवाले भी बहुत
बस काम करनेवाले कहीं नहीं ।
समाज को ज़रुरत और सुधारनेवाले भी बहुत
बस सुधरनेवाले कहीं नहीं ।।

प्रगति के नाम पे दौड़ना सभी को है
रुक कर आनंद उठाना किसी को नहीं ।
दवाईयों के बल पर ही सही, सांस लेना सभी को है
अफ़सोस! बस जीना किसी को नहीं।।

नक़ाब

written on 28th June 2020 @1645hrs

मेले में इक दुकान के सामने
रंग-बिरंगी चेहरों को देख
नादाँ था जो पूछ बैठा
क्या बेच रहे हो भाई?

हँसते चेहरे, रोते चेहरे, हँसानेवाले चेहरे और डरावने चेहरे
रोती शकल छुपानेवाले चेहरे और किसी को ग़ुस्सा दिलानेवाले चेहरे
सभी बेचता हूँ ज़नाब
बताइये आप को क्या रिझाता है

कोई अपना ग़म छुपाता है तो कोई अपना डर
कोई अपनी ख़ुशी तो कोई अपना प्यार
आपके मन को भाये
कुछ ऐसा अपने संग ले जाइये

नादाँ था जो फ़िर बोला
आँखों में दम तोड़नेवाले ख़्वाब
जिन्हें संभालता है मैख़ानों में बिकनेवाली शराब
समाज का एक नक़ाब ही तो है

जज़्बात हैं ये दिखावे का
अपने असली मनसूबों को छुपाने का
बंदे को दी हुई शक्ल भी
एक हिसाब से नक़ाब ही तो है

ज़माना है ये फ़रेब का
अपने असली करतूतों को छुपाने का
ज़मीर का वज़न ढ़ोता ये बदन भी
अपने रूह का एक नक़ाब ही तो है

कुछ पंक्तियाँ

Written on 23rd June 2020 @1600hrs

सेवन जो भी करें
हमेशा साफ़सुथरा हो
फ़िर वह जलपान हो
या शब्दविचार

ऊंचनींच, भेदभाव
समाज और मन का खेल है सारा
बाक़ी तो
जो हैसो है

सर्वश्रेष्ठ बनने का
प्रयास जी तोड़ करना
बस किसी को चोट पहुंचे
और किसी का दिल टूटेये ध्यान रखना

मुझसे ये दुनिया है या मैं दुनिया से हूँ
हक़ीक़त जानने तक
मेरे लिए दुनिया रही
और दुनिया के लिए मैं रहा

गुमान अच्छा परेशानी अच्छी
मौत झूठी और ज़िन्दगी सच्ची
अपनी साँसे संभालो और रिश्ते निभाओ
क्योंकि दोनों की डोर है बड़ी कच्ची

सच क्या है ?

Written on 22nd June 2020 @1230hrs

किस्से हैं और कहानियां हैं
अभिप्राय हैं और नज़रिये हैं
सच की खोज कैसे करें कोई
रह गयी है आज जो, सच की मात्र एक कल्पना है

सच का भी बटवारा जो चूका है
कुछ सच तेरा तो
कुछ सच मेरा हो चूका है
रह गयी है आज जो, सच की मात्र एक कल्पना है

कही सुनी बातें हों
या आँखों देखि
हर सच को तोड़ा मरोड़ा जाता है
रह गयी है आज जो, सच की मात्र एक कल्पना है

सत्यमेव जयते और
सच के रखवाले के इंतज़ार में
हर कोई सच का ठेकेदार बना बैठा है
रह गयी है आज जो, सच की मात्र एक कल्पना है

आत्मचिंतन

Written on 16th April 2020 @1657hrs (Probable lyrics)

ये मुझे क्या होने लगा है?
डर सा मुझे क्यों लगने लगा है?
कुछ न करने की परेशानी है
या अचानक रुक जाने कि बेचैनी है

कल तक जो किया करता था
समय के साथ जो लड़ा करता था
औरों के नज़र में तो सुलझा हुआ था
पर अंदर मैं बेवजह उलझा हुआ था

फिर वो दिन आ ही गया
मुझे खुद से मिलाया गया
शुरू में तो बड़ा अजीब लगा
मैं बहुत बेचारा और ग़रीब लगा

धीरे धीरे एहसास हुआ
जैसे अपने आप पे परिहास हुआ
खुद को कभी जाना ही नहीं
अपने कौशल को पहचाना ही नहीं

मैं क्या कुछ कर सकता हूँ
बगैर सहूलियतों के भी रह सक्ता हूँ
ज़रूरतों और दिखावे का भेद जान गया हूँ
औरों के श्रम कि कीमत जान गया हूँ

साफ़ सुथरी हवा में सांस लेने सीख गया हूँ
आवाज़ से चिड़ियों कि पहचान करने सीख गया हूँ
बुज़ुर्गों को ठीक से समझने लगा हूँ
उनके वक़्त कि परिभाषा जानने लगा हूँ

थोड़े में ज़्यादा का आनंद लेने लगा हूँ
रात को चैन कि नींद सोने लगा हूँ
अकेले ही खुश रहना सीख गया हूँ
मैं आज और अब में जीना सीख गया हूँ

आपका सफर शायद मुझसे निराला होगा
आपका अनुभव भी मुझसे अलग होगा
पर उम्मीद तो यही है दोस्तों
के हमारा आनेवाला कल सुनेहरा होगा

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लॉक डाउन

Written on 30th March 2020 @ 0042hrs (Lyrics for Shrikanth’s composition)

कोई न रज़ामंद
पर हैं सब घर में बंद
इस फ़ैसले को चाहे जितना
कोई करे नापसंद

जो चाहा हमेशा
जिस के लिए जुआ परेशान
वह दो पल कि शांति
बस खिच गया ज़रा सा

घर से काम कर
घर के काम कर
आगे के कुछ दिन
अपने घरवालों के नाम कर

पुरानी तस्वीरें देख
पराने सीरियल्स देख
अपने बचपन को दोबारा
जीने का मौका मिला है देख

गीले शिक़वे दूर कर
बच्चों के साथ खेल कूद कर
घरेलु विषयों पर
तू बातें दो चार कर

गाने सुन और गुनगुना
किताबें पढ़ और पढ़वा
छुपे हुए हुनर को ढूंढ
और उसे दुनिया से मिलवा

नयी आदतें डाल
माँ और पिता का रख ख़याल
कुछ दिन थोड़ा सैंयम रख
निपट जाएगा ये बवाल

भला ही होगा
किसीने कुछ सोचा ज़रूर होगा
अपनी तो जैसे तैसे कट जायेगी
बस मज़दूर का गुज़ारा कैसे होगा

February 14 2020
Stomach Poem
January 17 2020

Inspired by Javed Akhtar’s “Main aur Meri Tanhai” from Silsila

मैं और मेरा अहंकार
~ श्रीक्स

मैं और मेरा अहंकार अक्सर यह बातें करते हैं
तुम न होते तो कैसा होता; बेवजह माँ से यूं न चिढ़ता
पापा के डांट से यूं न रूठता

मैं इस बात पे परेशान न होता; मैं उस बात पे हास्के निकल जाता
तुम न होते तो कैसा होता; तुम न होते तो अच्छा होता

मैं और मेरा अहंकार अक्सर यह बातें करते हैं

मजबूर ये जज़्बात इधर भी है, उधर भी
अफ़सोस कि एक बात इधर भी है, उधर भी
कहने को बहुत कुछ है
मगर कैसे कहें हम

कबा तक ऐसे झुलस्ते रहें और सहें हम
मन कहता है के अपने गुस्से को पी ले
मुस्कुराके दिलों के दीवार को गिरा दे
क्यों दिल में सुलग्ते रहें हम
क्यों न ये सीधी सी बात मान लें

हाँ ये मेरा अहंकार है, अहंकार है, अहंकार
अब यही सच्चाई इधर भी है, उधर भी

मैं और मेरा अहंकार अक्सर यह बातें करते हैं

January 6 2020

क्या खोज के लाया?
~ श्रीक्स

मौत को ज़िंदगी में क़ैद करके भेजा गया
उस्की खूबसूरत रचना को देखने भेजा गया

दुनिया गोल है; जो बोयेगा वही पायेगा
यह समझाकर ही भेजा गया

कुदरत के करिश्मे का अनुभव लेने भेजा गया
विविध जीव-जन्तुंओं के साथ वक़्त बिताने भेजा गया

उनपे अपना अधिकार और वर्चस्व जताना
ओ मूर्ख – किसने तुझे सिखाया?

कुदरत के कानून और सरलता के नियम जो थे सिखाये
अरे पगले – उन्हें कहाँ भूल आया?

अपने सामाजिक कानूनों में बेबस
क्यों उलझता चला गया?

अपने आप को इतनी एहमियत क्यों दे बैठा?
मौत को आज़ाद करने के भिन्न भिन्न प्रकार क्यों सीख आया?

आनंद और प्रसन्नता से भरी इस सृष्टि में
ये मायूसी और दुःख को कहाँ से खोज लाया?

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January 3 2020
Intezaar

इंतज़ार – २
~ श्रीक्स

इंतेहा होती है इंतज़ार कि
और नतीजे से कांपते हैं हम
और कुछ हो न हो बस
इंतज़ार के नाम से चिढ़ते हैं हम

रुकना तो जैसे सीखा ही नहीं
हर चीज़ तुरंत चाहते हैं हम
मिलता तो वैसे भी कुछ नहीं है
बस मानने से इनकार करते हैं हम

जल्दबाज़ी के नाम पे अहंकार को हवा देना है
यही देखते आये हैं हम
बेवक़ूफ़ ज़माने को आईना दिखादे कोई
इसी इंतज़ार में हैं हम

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January 3 2020

इंतज़ार|

खाने को जानवर कच्चा भी खा लेते हैं
पर इंसान को चाहिए स्वाद
और स्वाद के लिए खाने के धीमे आंच पर पकना ज़रूरी है
और उसके लिए करना होता है इंतज़ार

‘Love at first sight’ तो केवल नाम का है
पर जो रूह तक पहुंचे वह है इश्क़
वो सिर्फ ख़ामोश नज़रों से बयान होता है
और उसके लिए करना होता है इंतज़ार

खैरात या विरासत में जो मिलती है
वो है मिलकियत या दौलत
पर जुनून अगर हो क़ामयाबी का
तो पूरे मेहनत के साथ ज़रूरी है थोड़ा इंतज़ार

फूलों को सराहो; वादियों को निहारो
रास्ते का लुत्फ़ उठाते चलो
पहुंचना तो सभी को है एक दिन
मंज़िल को करने दो ज़रा सा इंतज़ार

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November 29 2019
Nivedan - A Sriks' kavita
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November 21 2019

पहचान
~ श्रीक्स

मौजूदा हालात पे पंक्तियाँ क्या लिखना
वो तो समय के साथ मिट जाएंगे
लिखो तो कुछ ऐसा के जब भी पढ़ो तो
एक नयी सीख मिले

अपने जज़्बातों को क्या बयान करना
वो तो मौसम कि तरह बदलते रहते हैं
कहो तो कुछ ऐसा के जब भी सुनो तो
दिल में जोश भर दे

किस्सों और क़िरदारों कि क्या औक़ात
वो तो हर कोई पढ़-लिख लेता है
जियो तो ऐसे के पहचान ख़ुद समय के सीमाओं के परे
एक मिसाल बन जाये

Stand out

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July 22 2019

मनुष्य की काल्पनिक दौड़
~ श्रीक्स

प्रकृति और मनुष्य में मानो
जैसे कोई दौड़ लगी हो
प्रकृति को भले न जानो
जीत का परचम मनुष्य के नाम हो

उस दौड़ में पहले मनुष्य को
‘जो’ मिलता था, काम उसी से चलता
कैसे सहलाते मगर उसके लालची मन को
जो ज़्यादा के लिए मचलता

फ़िर मसला हुआ बढ़ती मांगों का
‘जितना’ था उतने से ज़्यादा की चाहत थी
आदत डाल लिए राशन कि पंक्तियों की
कुछ हल तो निकल आया , गनीमत थी

हिस्से कि मात्रा क्या बढ़ा लिया
मिलावट से मानो दोस्ती कर ली थी
मनुष्य कि नीयत को टटोल लिया
नज़र जब ‘जब जब’ कि सहूलियत पे पडी थी

दौड़ते दौड़ते न जाने कहाँ आ गया
‘जैसे’ चाहें वैसे जीने कि आदत पड़ गयी
इस काल्पनिक दौड़ में प्रकृति को न जाने कहाँ छोड़ आया
खुली हवा में सांस ले पाए बस,अब ऐसी परिस्तिथि आ गयी

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April 18 2018

दरख़्वास्त कि क़द्र नहीं
ऐतबार का ज़िक्र नहीं
सुनेंगे तो बस किसी की चीख
फिर दूसरी ओर मुँह करके सो लेंगे

जो तुम्हारे पास है, वह मुझे भी चाहिये
मेहनत या हक़ से क्या वास्ता
विद्रोह करेंगे, शहर जलायेंगे
न चैन से जियेंगे न जीने देंगे

गुज़ारिश क्या है यह इल्म नहीं
माँगने से कभी कुछ मिला ही नहीं
छीन के ही अब घर बसायेंगे
मुम्किन न हुआ तो किसी का नहीं

‘हमारे’ धर्म का ‘हम’ पालन करें न करें
उस्के नाम पे दंगे और क़त्ल करेंगे
संस्कृति का ढोल पीटेंगे, एकता के गाने गाएंगे
हम न एक हैं, न बनने कि कोशिश करेंगे

दरख़्वास्त कि क़द्र नहीं
ऐतबार का ज़िक्र नहीं
सुनेंगे तो बस किसी की चीख़
फिर दूसरी ओर मुँह करके सो लेंगे

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March 29 2017

आशियाना!
     ~ श्रीक्सकुछ ख़्वाब अधूरे से  
कुछ सप्ने बिखरे पाए 
गुज़रे बच्पन कि गलियों से 
जब मेरे सायेकारवाँ मिलते चले
मैं जुड़ता चला गया
मंज़िल तो कहीं और थी 
पहुँच कहीं और गया अंदर से आवाज़ आयी
मानो कोई दस्तक़ सी
सुन पाया मैं, शायद कहीं
पहुँचने की जल्दी थी अब एक एह्सास सा है
पर वक़्त का अंदाज़ा नहीं
साहस तो अब भी है
पर हम अब अकेले नहींसपने अलग हो बस
रास्ते मुड़ जाए बस
बलिदान कि हो ज़रुरत
इच्छाओं को रुकना पड़े बस

रुकना तो तब भी नहीं था
रुकना तो अब भी नहीं है
रुकने की गुंजाइश भी हो
जुड़ जाएँ गर हमारे सपने

और उस साथ का हो यकीं अगर
हर हालात के लिये हैं तैयार
बनाएं एक ऐसा आशियाना
जिस्मे हो बस सुकून और प्यार!

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December 15, 2016

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November 1, 2016

अल्फ़ाज़ों के मज्मे में मैंने अक़्सर
ग़लत फ़हमियों को पनप्ते देखा है

शायरी को ग़ज़ल बनने के लिए मैंने अक्सर
मौसिक़ी का मोहताज़ होते देखा है

मगर ख़ामोशी और मौसिक़ी अपने आप में मुकम्मल हैं

इश्क़ मोहब्बत नहीं और लहजा लिहाज़ नहीं
एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं

सुकून कि जुस्तजू महज़ एक रिवायत नहीं
इबादत से वाबस्ता है

रूहानियत से गुफ़्तगू के हम पुराने ख़्वाबीदा हैं

जूनून-ए-कोशिश जो शिद्दत बयां करती है
बयान-ए-इरादे में वो नूर कहाँ

बादस्तूर ख़ामोशियों कि ताबीर
किसी इनायत से कम कहाँ

ग़ौर करें तो दास्ताँ-ए-ज़िन्दगी नज़रों में मयस्सर हैं
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September 29, 2016

अलफ़ाज़ शायद लबों से छूटकर आज़ाद महसूस करें
पर सोच तो तेरी अब भी ज़ंग पकडी हुई ज़ंजीरों में जकडी है

ख़्वाहिशों के कारवाँ में तू बहुत आगे निकल गया
पर गर्दन अब भी तेरी पहली क़ामयाबी पे अकडी है

समय रेत् सी उंगलियों के बीच से रेंगकर निकल गया
पर तू अब भी पुराने गिले शिक़्वों को धर पकड़ा है

हर पल को अपनाले
अपने हर हुनर को ख़ूब आज़माले

जीत हुई तो नये अभियान पे चल पड़
शिक़स्त हुई तो एक और कोशिश कस के जड़

विनम्रता से झुका के सर
ख़यालों को आज़ाद कर

जड़ से मिटा के हर तरह का डर
मुस्कान भरे – एक नयी उड़ान भर
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September 15, 2016

इरादे नेक हों और तरीक़े नेक हों तो नतीजे भी नेक ही होंगे।

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September 14, 2016

मैं कौन हूँ ?

उलझा तो हूँ इस “मैं” के माया में
लेकिन यह “मैं” कौन हूँ?

क्या मेरे रिश्ते मेरी पहचान हैं?
बेटा; भाई; पति; पिता; चाचा या मामा?
या जिससे दुनिया पुकारती हैं वह नाम मेरी पहचान है?

क्या मेरी नौकरी मेरी पहचान है?
या वह सिर्फ रोज़ी रोटी कमाने का एक ज़रिया मात्र है?

यह “मैं” हूँ कौन?
मेरी पहचान आख़िर है क्या?

मेरे शौक़? मेरा लिहाज़? मेरा धर्म या मेरा कर्म?

क्या मेरे एह्सास मेरी पहचान है?
यह शख्स उदास है; नाराज़ है; ख़ुश है;
आलसी है; ख़ुश मिज़ाज़ है या शातिर है।

जब मेरे ज़िंदा रहते इन सवालों का जवाब नहीं है मेरे पास
तो मेरे जाने के बाद – ऐसी कौनसी पहचान के लिये झूंझ रहा हूँ?

इस पल में जो तन्हाई है
क्या उस तन्हाई में ख़ुशी है?

इस पल जो मुझसे रूबरू है
क्या उसके चेहरे पे मुस्कान है?

अरे बीता हुआ कल न लौटेगा
और न आनेवाला कल किसीने देखा
जो भी है बस यही एक पल है

इस पल में “जो हूँ”; “जैसा हूँ”
वही “मैं” हूँ
हाँ – बस वही “मैं” हूँ।

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April 24, 2015

शायद इसी को जीना कहते हैं

हम अक्सर बीते हुए लम्हे दोबारा जीना चाहते हैं
ज़िन्दगी के कुछ हसीन पल दोहराना चाहते हैं

कभी तो आनेवाले कल के फ़िक्र में उलझे रहते हैं
तो कभी अपनों के सपने पूरे करने में झूजते रहते हैं

बचपन में जवानी का इंतज़ार करते हैं
और जवानी में कामयाबी के पीछे दौड़ते हैं

पुरानी तस्वीरों में बचपन को खोजते हैं
मन ही मन अपने आप को कोसते हैं

औरों के संग यादें पिरोते रहते हैं
लेकिन अपने आप से दूर चलते रहते हैं

हर डगर पर मंज़िल बदलते हैं
अरमानों के नये महफ़िल सजते हैं

हम जिसे “आज” को खोने के ग़म में आसुओं को पीना कहते हैं
कथाओं और कविताओं में शायद इसी को “जीना” कहते हैं

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December 18, 2014

Stop This Madness

दिलों में दरार
नफरत कि दीवार
मन में क्लेश; बढ़ता हुआ द्वेश
बटवारे कि उपजएक से बने दो देश
ईंट का जवाब पत्थर
हालात हुए बद से बत्तर
डर और आतंक से माहौल बेहाल
चैन और सुकून का खौफनाक इंतकाल
मोम के मोर्चे और आपसी चर्चे
घिनौनि जातिय राजनीति के पर्छे
सुरक्षा एवं सेना के बजट में इज़ाफा
बम बन्दूक और मौत के सौदागरों का मुनाफ़ा
हर मुश्किल होता है हल
उपाय है सीधा और सरल
भुला दें अगर बीता हुआ कल
मुस्कुराएंगे हमारी नस्लें और आनेवाला कल
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August 14, 2014

स्वतंत्रता – एक एहसास

आज कि मांग है
सोच में बद्लाव कि
औरों से उम्मीद के पहले
अपने आप में इसे जगाने कि

‘पहले आप’ के तहज़ीब वाले इस देश में
अब गूँज रहा है खुदगर्ज़ी का नारा
“हमारी माँगें पूरी करो” कहते सुनते
प्रदेशों में बट रहा है देश यह सारा

अनेकता में एकता का हमेँ कभी था अभिमान
लेकिन अब धर्म और जाति के तनावों में झुकी है हमारी शान
अपने माँ और बहनोँ कि सुरक्षा से मुँह मोड़े, ज़मीर है सोई
भारत माँ कि लाज बचाने वाला क्या सच्चा है कोई?

अपने देश की रक्षा करना केवल जवानोँ कि नहीं
ज़िम्मेदारी तो हम सब कि है
बुनियादी ज़रूरतों कि ख़्वाहिश
जनता कि यह आस तो कब कि है

बढ़ौती और उन्नति में बड़ा फ़र्क है
इस तृष्णा से अपने आप को बचाना है
देश के आबादी को एक ज़रिया बनाना है
उमंग कि लहर को प्रगति के सैलाब में बदलना है

किसि के नक़ल की हमेँ कया ज़रुरत?
आओ अप्नी कल्पनाओं को एक नयी उड़ान दें
ख़ेल, कला और संस्कृति में
उत्कृष्टता कि एक अपनी पहचान दें

मनाने को स्वंतंत्रता एक “दिवस” मात्र नहीं
वह तो हर पल महसूस करने वाली एक जज़्बात, एक एहसास है
अतुल्य भारत तो है ही – आओ मिलके इसे बनाएँ
एक प्रचंड भारत; एक अखंड भारत

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January 26, 2013
उम्मीद पे दुनिया क़ायम

निराशाजनक अखबारों कि सुर्ख़ियों से 
अग्न्यनों के मुरकियों से 
अंधे कानून से 
सड़कों पर घूमनेवाले दरिंदों से

आतंकवादियों से 
पढ़े लिखे मतिबंद इंसानों से
मूर्ख नेताओं कि विशेष टिप्पणियों से
नपुंसक गठबंदी सरकार से

ग़रीबी, भुकमरी या बेरोज़गारी से 
घंटों बिजली की कटौती से 
हमें गिला है शिकवा है 
इन् गैरों से जो लगते तो हैं अपने से 

नाराजगी तो है हमें खुद से
और हम जैसे भावुक और उत्तेजित बहनों और भाइयों से
अपने आप को असहाय या असमर्थ समझ
नाराजगी है इस नासूर व्यवस्था को केवल कोसने से

सीना ठोक औरों को बदलने चल पड़े 
खुद के गिरेबां में झाँकने से पहले
इस महान देश कि व्यवस्था बदलने चल पड़े
रोजमर्रे की ज़िन्दगी में या अपनी सोच में लाने से पहले

चलो, पहले छुपाये जाने वाली हर बात को उछालने से
जनता में जागरूकता की एक लहर तो चल पड़ी 
गहरी नींद से जागने के संकेत पे और सुबह कि धुंद से
उम्मीद कि एक किरण तो निकल पड़ी 

इसी उम्मीद पे और अपने देश के असली संस्कारों के भरोसे
आप सभी को इस चौसंठ्वा गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!!

 
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July 13, 2012
 

खुली फिज़ा से रूबरू की उम्मीद!

इल्म नहीं क्या बेरुखी है सूरज को
उसे उगते, दहकते और सांझ में डूबता देखता हूँ
पर कांच के परे

वर्षा खिडकियों पे और दरवाज़ों पे दस्तक देते दम तोड़ देती
जो आंसू बहाती, वह पैरों तले सिसकती

मशीनों के बीच कुछ इस तरह मसरूफ थे हम
के सांस लेने वाली हवा तक मशीनों की ही देन थी

खुली फिज़ा से रूबरू के उम्मीद में
इस कशमकश से एक सदी और गुज़रेंगे हम!

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July 25, 2011

A humble attempt at a Hindi / Urdu poem

A tribute to all my FRIENDS…

अक्षरों को जोड़ के शब्द बनते हैं
उनमे रूमानी मिला दो, अलफ़ाज़ बन जाते हैं

अल्फाज़ों को जोड़ के पंक्तियाँ बनती हैं
उनमे सुर मिला दो, तो गीत बन जाते हैं

क्षणों को जोड़ के दिन बनते हैं; दिन महिने, और महिने साल बनते हैं
उनमे अपने आप को घोल दो, तो यादें बन जाती हैं

यादों को समेटते चलो, सदियाँ बन जाती हैं
सदियों में अपना वजूद मिला दो तो ज़िन्दगी बन जाती हैं

ज़िन्दगी में दो को शामिल कर लो; तो मिसाल बन जाती है
दोस्ती को शिद्दत से निभा दो, तो बेमिसाल बन जाती हैं