इल्म नहीं क्या बेरुखी है सूरज को
उसे उगते, दहकते और सांझ में डूबता देखता हूँ
पर कांच के परे
उसे उगते, दहकते और सांझ में डूबता देखता हूँ
पर कांच के परे
वर्षा खिडकियों पे और दरवाज़ों पे दस्तक देते दम तोड़ देती
जो आंसू बहाती, वह पैरों तले सिसकती
मशीनों के बीच कुछ इस तरह मसरूफ थे हम
के सांस लेने वाली हवा तक मशीनों की ही देन थी
खुली फिज़ा से रूबरू के उम्मीद में
इस कशमकश से एक सदी और गुज़रेंगे हम!
Ummeed karenge hum bhi…
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Sahi farmayaa huzoor…bahut khoob.Shaneel
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Very Well Articulated 🙂
We have indeed closed our doors to mother nature and things which comes naturally to us. Jeevan Ki AapaDhapi mein 🙂 Abhijeet
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Thanks for your comments Sirjee
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